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N-16 श्लोक नं. १५.७ का स्पष्टीकरण

• श्लोक नं. १५.७ इस प्रकार है।

मम एव अंश: जीव-लोके जीवभूत: सनातनः ।
मन: षष्ठानि इन्द्रियाणि प्रकृति स्थानि कर्षति ।। १५.७॥


(एवं) नि:संदेह (जीव लोक) प्राणियों के इस जीव लोक के (जीवभूत: ) जीवित प्राणी (माम) मेरे (सनातनः) हमेशा एक जैसा कायम रहने वाले (अंश) (तेज के) अंश (से) (स्थानि) स्थित (कायम) हैं। (मन:) (और मनुष्य) आत्मा (षष्ठानि) छ (इन्द्रियाणि) इच्छाऐं (प्रकृति) (और) भाग्य (कर्षति) (के कारण) सारे काम करता है।

नि:संदेह प्राणियों के इस जीव लोक के जीवित प्राणी मेरे हमेशा एक जैसा कायम रहने वाले (तेज के) अंश (से) स्थित (कायम) हैं। (और मनुष्य) आत्मा, छ: इच्छाऐं, (और) भाग्य (के कारण) सारे काम करता है।

इस श्लोक में ४ चीज़ों का वर्णन है।

१. सनातन अंश (तेज अंश)
२. मन
३. छ: इच्छाएं
४. भाग्य

इनके बारे में अधिक जानकारी निम्नलिखित श्लोक और आयत में है।

तेज अंश :-

भगवद् गीता का श्लोक नं. १०.४१ इस प्रकार है।

यत् यत् विभूति मत् सत्त्वम् श्री-मत् उर्जितम् एव वा । तत् तत् एव अवगच्छ त्वम् मम तेजः अंश सम्भवम् ।। ४१ ॥

(यत्-यत्) (संसार में) जो जो (विभूति मत्) दिव्य रचनाऐं या समृद्धि (ऊर्जितम्) ऊर्जा (या ज्ञान) (वा) या (श्री मत्) सुख शान्ति (और) (सत्त्वम्) मानवता (सच्चाई) (मत्) मानी जाती है। (एवं) नि:संदेह (तत् तत्) उन सबको (त्वम्) तुम (मम) मेरे (तेज: अंश) तेज के अंश से (सम्भवम्) उत्पन्न हुई है ऐसा (अवगच्छ) समझो।

संसार में जो जो दिव्य रचनाऐं या समृद्धि, ऊर्जा (या ज्ञान) या सुख शान्ति और मानवता (सच्चाई) मानी जाती है। नि:संदेह उन सबको तुम मेरे तेज के अंश से उत्पन्न हुई है ऐसा समझो।

जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश के सोलार घड़ी चलने लगती है। इसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड ईश्वर के तेज के एक अंश से जीवित है। हमारे शरीर में प्राण भी इसी कारण है।

मन (आत्मा) :-

श्लोक नं. ८.३ इस प्रकार है।

श्री भगवान उवाच,
अक्षरम् ब्रह्म परमम् स्वभाव: अध्यात्मम् उच्यते ।
भूत-भाव- उद्भव कर विसर्ग: कर्म संज्ञितः ॥ ८.३।।

(श्री भगवान उवाच) ईश्वर ने कहा, (परमम्) महान (अक्षरम्) अविनाशी (ॐ) को (ब्रह्म) ब्रह्म (ईश्वर) (उच्यते) कहते हैं। (स्वभाव) मनुष्य का अपना जो स्वभाव (व्यक्तित्व) है उसे (अध्यात्मम) आत्मा कहते हैं। (भूत) प्राणियों के (भाव) स्वभाव की (उदभव) रचना करना और (कर:) (उन्हें उनके प्राकृतिक जीवन के)
कर्म (उनको) (विसर्ग) प्रदान करना (कर्म) (इसे ईश्वर का) कर्म (संज्ञितः) कहा जाता है।

ईश्वर ने कहा, महान अविनाशी (ॐ) को ब्रह्म (ईश्वर) कहते हैं। मनुष्य का अपना जो स्वभाव (व्यक्तित्व) हैं उसे आत्मा कहते हैं। प्राणियों के स्वभाव की रचना करना और उन्हें उनके प्राकृतिक जीवन के कर्म उनको प्रदान करना इसे ईश्वर का कर्म कहा जाता है।

यह जो हमारी आत्मा है इसमें ईश्वर ने सत्वगुण, रजो गुण, तमो गुण, काम, लोभ, क्रोध इत्यादि भावनाएं रखी है। जिस कारण मनुष्य निरन्तर काम करता रहता है।

छह इच्छाएं :-

ईश्वर ने हर मनुष्य के अन्दर छ: इच्छाएं रख दी हैं। जिनके प्राप्त करने का मनुष्य निरन्तर प्रयास करता है। वह छ इच्छाओं का वर्णन पवित्र कुरआन में इस प्रकार है।

“लोगों के लिए उनकी चाह की चीजें, स्त्रियाँ, बेटे, सोना चांदी के ढेर, निशान लगे हुए अच्छी नस्ल के घोड़े, चौपाए और खेती शोभायमान बना दी गई हैं। (इनकी चाह उसके हृदय में बैङ्गा दी गई है) ये सब सांसारिक जीवन की सुख सामग्री हैं और ईश्वर ही के पास अच्छा ठिकाना है।"
(सूरह अल इम्रान ३, आयत १४)

• आज के युग में यह छ इच्छाएं इस प्रकार होंगी।

१. स्त्रियां २ बेटे ३. बँक बॅलेन्स ४. अच्छी कार ५. व्यवसाय (Business) ६. सम्पत्ती (Property)

इनको पाने के लिए मनुष्य निरंतर प्रयास करता है।

भाग्य :-

कार्य कारण कर्तृत्वे हेतुः प्रकृति: उच्यते । पुरुषः सुख दुःखानाम् भोक्तृत्वे हेतुः उच्यते ।। १३.२१ ।।
(उच्यते) ईश्वर ने कहा (कर्म) कर्म (कारण) कर्म करने के कारण (कर्तृत्वे) कर्मों को करने वाला (प्रकृति) (यह सब) भाग्य ( हेतु) के कारण होते है। (उच्यते) ईश्वर यह भी कह रहा है कि (पुरुषा) मनुष्य (सुख) सुख (दुखानाम्) दुख (भोक्तृत्वे) का जो अनुभव करता है ( हेतु:) उसका कारण भी भाग्य है।

ईश्वर ने कहा कर्म करने के कारण, कर्मों को करने वाला यह सब भाग्य के कारण होते हैं। ईश्वर यह भी कह रहा है कि मनुष्य सुख, दुःख का जो अनुभव करता है उसका कारण भी भाग्य है।