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अध्याय 12 - भक्ती योग


INTRODUCTION :


●अध्याय ९ का श्लोक नं. २३ इस प्रकार है।

हे कुन्ती पुत्र (अर्जुन), नि:संदेह जो दूसरे देवताओं की भक्ति करते हैं और श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति में लगे रहते हैं। नि:संदेह, वह भी मेरी ही भक्ति करना चाहते हैं (किन्तु ज्ञान न होने के कारण) नियमों का उल्लघंन करते हैं।

अज्ञानता के कारण नियमों का उल्लघंन न हो यही इस अध्याय का मुख्य ज्ञान है।

SUMMARY OF SHLOKS :


●इस अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन ईश्वर से प्रश्न करते हैं कि "जो लोग ईश्वर को निराकार मानकर प्रार्थना करते हैं और जो लोग ईश्वर को किसी आकार में मानकर प्रार्थना करते हैं, इनमें अज्ञानी कौन हैं ?

ईश्वर ने इसका स्पष्टीकरण इन शब्दों में किया कि “जो मेरी इस श्रद्धा के साथ प्रार्थना करते हैं कि मैं किसी पर निर्भर करता हूँ, वह अज्ञानी है।"

● श्लोक नं. ११.४३ में ईश्वर को अप्रतिम कहा गया है, अर्थात बिना आकार के श्लोक नं. १३.१५ में ईश्वर को निगुर्ण कहा गया है। अर्थात उसमें मनुष्य के समान सीमित गुण नहीं है। श्लोक नं. १२.३ में ईश्वर को अविनाशी, न दिखाई देने वाला, हर स्थान पर उपस्थित और कल्पना से उच्चतर कहा है।
तो जो ईश्वर को इस प्रकार कल्पना करके प्रार्थना करेगा वही ज्ञानी है।

● इसके बाद दयालु ईश्वर ने मानवजाती को स्वयम् बताया कि उसकी प्रार्थना कैसे करें ? इसका वर्णन श्लोक नं. १२.५ से १२.१२ तक है।

●इसके बाद मानवजाति को प्रेरित करने, उत्साहित करने और उत्तेजित करने हेतु ईश्वर ने वह गुण बताए जिन्हें अपनाकर मनुष्य ईश्वर का प्रिय हो जाता है। इन गुणों का वर्णन श्लोक नं. १२.१३ से १२.२० तक है।

● इस प्रकार यह अध्याय ईश्वर में श्रद्धा को शुद्ध करता है और मनुष्य को कर्म योग और कर्म सन्यास के लिए तैयार करता है।

SHLOKS :

भगवद गीता - श्लोक 12.1 View

अर्जुन ने कहा, “(हे ईश्वर) वह (जो) सदैव आपकी प्रार्थना में लगा रहता है। (किन्तु) इस तरह ( कि वह आपको कोई मूर्ति में या आकार वाला मानता है)। और वह जो नि:संदेह (आपको) अविनाशी, न दिखाई देने वाला मानता है। उन (दोनों में) कौन (आपसे) जुड़ने वाली प्रार्थना के ज्ञान से अज्ञान है।”

भगवद गीता - श्लोक 12.2 View

ईश्वर ने कहा, जो मुझे स्थित करते हैं मन में, (और) सदैव लगे रहते हैं मेरी उपासना में, (और) मेरी (तरफ) ध्यान लगाते हैं इस श्रद्धा के साथ कि मैं दूसरों पर निर्भर हूँ। वह अज्ञान में युक्त हैं (ऐसा) मेरा निर्णय है।

भगवद गीता - श्लोक 12.3 View

किन्तु वह जो ध्यान को बिना भटकाए पर्वत के समान जमकर बैठते हैं, और अपने नाक के छोर पर ध्यान लगाते है (अर्थात ईश्वर की याद में एकाग्र होते है), और (मेरी) प्रार्थना करते हैं, (और मुझे) अविनाशी, न दिखाई देने वाला (बिना मूर्ति का), हर स्थान पर उपस्थित सर्वव्यापी और कल्पना से उच्चतर (मानते हैं)।

भगवद गीता - श्लोक 12.4 View

वह जो नियंत्रण करते हैं हर तरफ से (और हर प्रकार से) अपने इन्द्रियों को, और एक ही जैसा रहते हैं (सुख दु:ख में), और सदैव प्राणियों की हित (कल्याण) में व्यस्त रहते हैं, नि:संदेह (वह) मुझे पा लेते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 12.5 View

न दिखाई देने वाले (ईश्वर की याद में) मन को लगाना बहुत ही कठिन काम है इन शरीर वाले मनुष्यों के लिए। नि:संदेह, न दिखाई देने वाले ईश्वर के सत्य मार्ग को जानना (भी) बहुत कठिन है।

भगवद गीता - श्लोक 12.6 View

किन्तु वह जो सारे कर्म (केवल) मेरे लिए (करता है)। अन्य (देवताओं की प्रार्थना त्याग देता है, और मुझे अपने मन में रखते हुए प्रार्थना करता है। (और) मुझे प्राप्त करना अपने जीवन का लक्ष्य बनाता है।

भगवद गीता - श्लोक 12.7 View

हे पार्थ (अर्जुन), (जो लोग) मुझमें अपनी सोच को स्थित रखने वाले हैं, उन लोगों को मैं मृत्यु वाले (कष्टवाले) सांसारिक जीवन के समुद्र में अधिक समय तक नहीं (रहने देता)। और बहुत जल्द मुक्ति दे देता हूँ (कष्ट से, और जीवन में सुख शान्ति प्रदान करता हूँ)।

भगवद गीता - श्लोक 12.8 View

अपने मन में केवल मुझे स्थित करो। अपनी बुद्धि को मेरी शरण में दो । निःसंदेह उसके बाद (तुम) मुझ (में) तल्लीन (मग्न) रहने लगोगे। इस बात में कोई संदेह नहीं है।

भगवद गीता - श्लोक 12.9 View

हे अर्जुन, अगर मुझमें दृढता के साथ अपने मन को स्थित रखना (एकाग्र रखना) सम्भव न (हो) तो मुझे प्राप्त करने की इच्छा से वेदों के अभ्यास (सीखने में) जुट जाओ।

भगवद गीता - श्लोक 12.10 View

(यदि तुम) वेदों के सीखने में भी असमर्थ हो (तो फिर मुझ ईश्वर को) सबसे महान मानते हुए मेरे (आदेशों के अनुसार) कर्मों को (केवल) मेरे लिए ही (करने वाले) बनो। इस प्रकार कर्मों को कुशलता से करने से (तुम) (मुझे) पालोगे।

भगवद गीता - श्लोक 12.11 View

यदि इस तरह से भी ( तुम) असमर्थ हो (मेरी) शरण लेकर मेरी प्रार्थना करने के लिए, तो अपने सभी सत कर्मों के कर्म फल को छोड़ दो। (अर्थात नि:स्वार्थ कर्म करो और) अपने मन को वश में रखो।

भगवद गीता - श्लोक 12.12 View

नि:संदेह ( वेदों को) पढ़कर ज्ञान प्राप्त करना श्रेष्ठ है। ज्ञान प्राप्त करने से अधिक श्रेष्ठ है उस ज्ञान को समझना (उसमें ध्यान लगाना) । किन्तु ज्ञान को केवल समझने से श्रेष्ठ है उसके अनुसार निःस्वार्थ कर्म करना। क्योंकि अन्त में अनंत शान्ति केवल कर्म फल त्यागने से या नि:स्वार्थ कर्म करने से ही प्राप्त होता है।

भगवद गीता - श्लोक 12.13 View

(ईश्वर ने कहा वह व्यक्ति मुझे प्रिय है जो) नि:संदेह सारे प्राणियों से द्वेष नहीं रखता। (उनका) मित्र, दया करने वाला, और कोमल हृदय वाला, अहंकार के बिना, क्षमा करने वाला, (और) दुख: सुख में एक समान रहता है।

भगवद गीता - श्लोक 12.14 View

वह (व्यक्ति) मुझे प्रिय है (जो) संतुष्ट रहता है । सदैव प्रार्थना में लगा रहता है। अपने मन पर नियंत्रण रखता है। दृढ निश्चय वाला है और जो मन और बुद्धि अर्पित कर देता है। (और जो) केवल मेरी प्रार्थना करता है।

भगवद गीता - श्लोक 12.15 View

जिससे लोगों को न ही कष्ट होता है, और न ही लोग जिसे कष्ट देते हैं और जो आनंद, दुःख, भय (और) चिन्ता से मुक्त है, वह मेरा प्रिय है।

भगवद गीता - श्लोक 12.16 View

जो (ईश्वर के सिवा किसी से ) अपेक्षा नहीं रखता। जो स्वच्छ रहने वाला, सत्यवादी ( ईमानदार), निर्पेक्ष, भय और शोक से जिसने सारे व्यर्थ काम त्याग दिए हों, वह भक्त मुझे प्रिय हैं। मुक्त है।

भगवद गीता - श्लोक 12.17 View

वह (जो) न बहुत खुशी मनाता है। (और) न बहुत शोक मनाता है। न विलाप करता है, (और) न और अधिक की इच्छा रखता है। वह (जिसने) शुभ-अशुभ (की आस्था को ) त्याग दिया है। जो मेरी भक्ति में गर्व अनुभव करता है। वह मुझे प्रिय है।

भगवद गीता - श्लोक 12.18 View

(वह जो) मित्र और शत्रु से एक समान (उचित न्यायपूर्वक) बर्ताव करनेवाला है। और (जो) सम्मान, अपमान, सर्दी (गरीबी), गर्मी (अमीरी), सुख और दुःख में एक समान रहता है। और जो संगम (शिर्क) को छोड़ने वाला है, (वह मुझे प्रिय है) ।

भगवद गीता - श्लोक 12.19 View

(जिसके लिए) निन्दा (और) प्रशंसा एक समान है। खामोश रहने वाला। सब प्रकार के परिस्थिति सन्तुष्ट रहने वाला । बेघर (* किसी स्थान से में जुड़ा नहीं, सम्पूर्ण पृथ्वी जिसके लिए एक समान हैं, वह देश और प्रान्त के नाम पर नफरत नहीं करता) दृढ श्रद्धा वाला, मेरी भक्ति में सम्मान अनुभव करने वाला, ऐसा मनुष्य मुझे प्रिय है।

भगवद गीता - श्लोक 12.20 View

जो व्यक्ति इस धर्म (और) स्वर्ग ( के बारे में) जिस तरह कहा गया है (उस पर) पूर्णतया श्रद्धा रखते हुए, मुझे सबसे महान ईश्वर की भक्ति में (लगा हुआ है), वह मुझे सबसे अधिक प्रिय है।