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अध्याय 13 - क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग


INTRODUCTION :


अध्याय नं. ७, १०, और ११ में ईश्वर ने अपनी महान रचनाओं का वर्णन किया, ताकि मनुष्य उनको देखे, सोच-विचार करे, और ईश्वर की महानता को दिल से मान ले।

किन्तु यह सारी बाहरी वस्तुऐं थी। जिनसे कोई अच्छी तरह परिचित होता है, और कोई नहीं होता है। इस कारण ईश्वर अब अपनी उन महान रचनाओं का वर्णन कर रहे हैं, जो मनुष्य के शरीर के अंदर है। जो भी अपने अन्दर ध्यान लगाएगा वह इनका अवश्य अनुभव करेगा।


ईश्वर ने मिट्टी की एक मूर्ति बनाई, फिर इस मिट्टी की मूर्ति को अपने तेज के अंश से प्राण दिया। जिससे उसका हृदय धड़कने लगा। अपनी रुह में से उसमें रुह फूँकी, जिससे वह बुद्धिमान हो गया। उसने एक आध्यात्मिक आत्मा इस शरीर में रखा, जिसमें तीन प्रकार के स्वभाव रखे (सत्व, रजो और तमो गुण), काम, क्रोध और लालच की भावनाएँ रखी, छह प्रकार की इच्छाएँ रखी, जिसके कारण मनुष्य निरन्तर काम करता रहता है। इनके अतिरिक्त १९ ऐसे भावनाएं रखी जो को मनुष्य महान और सर्वश्रेष्ठ प्राणी बना देता है। ईश्वर ने मनुष्य को इतना उत्तम बनाया कि कोई • वैज्ञानिक ऐसा रोबोर्ट नहीं बना सकता है। तेज अंश, प्राण, रुह, आत्मा को हम नोट नं. N- १ और N-२ में पढ़ चुके हैं। अब इस अध्याय में १९ ऐसे गुणों का वर्णन श्लोक नं. १३.६ से श्लोक नं. १३.९ तक है जो ईश्वर की महानता का प्रमाण है।

इस अध्याय का लक्ष्य यही है कि मनुष्य अपने आप में ध्यान लगाए, चिन्तन करे अपने आप को पहचाने। अपने आपको पहचानेगा तो महान ईश्वर को पहचानेगा, जिसकी वह महान रचना है। इस प्रकार उसकी ईश्वर में श्रद्धा और दृढ होगी, और वह ऐसा महापुरुष बनेगा जो ईश्वर चाहते है।

SUMMARY OF SHLOKS :


● श्लोक नं. १३.१ से १३.४ में ईश्वर ने अपना परिचय मानवजाति को निर्माण करने वाला और ज्ञान प्रदान करने वाला कहकर दिया।

● श्लोक नं. १३.५ में ईश्वर ने ब्रह्म सूत्र को सबसे सत्य कहा, और ब्रह्म सूत्र में कहा गया है। में कि ईश्वर एक है।

● श्लोक नं. १३.६ से १३.११ में ईश्वर ने उन गुणों का वर्णन किया है जो उसकी महान रचना है और इन गुणों से मनुष्य भी महानता के उच्च स्तर तक पहुंचता है।

● श्लोक नं. १३.१३ से १३.१९ में ईश्वर ने अपने उन गुणों का वर्णन किया जो ईश्वर के अतिरिक्त किसी में हो ही नहीं सकते।

यदि कोई मनुष्य ईश्वर होने का या उसका अवतार होने का दावा करे तो देखो कि उसमें वह गुण जो ईश्वर ने इन श्लोकों में अपने बारे में बताए हैं वह उसमें हैं या नहीं। और यदि नहीं हैं तो वह ईश्वर नहीं हो सकता।

जब ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड की रचना की थी उसी समय ब्रह्माण्ड के जन्म से प्रलय तक जो होना है वह सब कुछ लिख दिया था। इसे भाग्य कहते हैं।
कई बार जीवन में हमारी गलती न होने के बावजूद हमें बहुत कुछ नुकसान, या कष्ट उठाना पड़ता है। यह भाग्य से होता है। यदि हम इस ज्ञान से परिचित रहे तो शान्त रहेंगे और ईश्वर से - शान्ति की प्रार्थना करते रहेंगे। सुख-श और यदि हमारा भाग्य पर विश्वास न रहा तो वह नुकसान या कष्ट जो हमें हमारी गलती न होने के बावजूद मिलता है, हम उसे ईश्वर का अन्याय मानेंगे। हमारा धर्म और मानवता से विश्वास उठ जाएगा। और हम स्वयम् अन्याय और अधर्म के मार्ग पर चलकर नरक में जा गिरेंगे।
इस कारण ईश्वर ने श्लोक नं. १३.२० से १३.२४ में भाग्य का वर्णन किया है ताकि हमारा सदैव ईश्वर पर विश्वास और श्रद्धा बनी रहे।

● श्लोक नं. १३.२५ से १३.३५ तक ईश्वर ने उदाहरण द्वारा समझाया है कि अब तक जो ज्ञान दिया गया उसके आधार पर यह दृष्टिकोण बना लो कि जो कुछ इस संसार में है और जो हो रहा है सब महान ईश्वर के कारण है।

SHLOKS :

भगवद गीता - श्लोक 13.1 View

हे कृष्ण! निसंदेह (मैं) भाग्य मनुष्य, क्षेत्र और क्षेत्र को जानने वाला और ज्ञान और ज्ञान को जानने के उपदेश, इन सभी को जानने का इच्छुक हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 13.2 View

ईश्वर ने (श्री कृष्ण के माध्यम से) कहा, हे कुन्तिपुत्र (अर्जुन)! सत्य को जानने वालों के • अनुसार यह शरीर क्षेत्र कहलाता है। इसी प्रकार इस (शरीर को) जो जानता है उसे क्षेत्र को जानने वाला कहा जाता है।

भगवद गीता - श्लोक 13.3 View

हे भारत (अर्जुन)! नि:संदेह सारे शरीरों (का निर्माता), और शरीर को जानने वाला मुझे (ही) जानो। मेरे आदेश के अनुसार शरीर ( मनुष्य) (और) शरीर को जानने वाले (ईश्वर का)

भगवद गीता - श्लोक 13.4 View

(ईश्वर ने कहा,) और वह जो शरीर ( है वह क्या है) और उसके गुण (क्या है?) उनमें किन कारणों से बदलाव होता है और क्या होता है? और वह कौन है जिसका इन पर प्रभाव होता है। यह मुझसे सुनो और संक्षिप्त में।

भगवद गीता - श्लोक 13.5 View

मानवजाति के कल्याण के लक्ष्य से ऋषियों ने बहुत विस्तार से वेदों की ऋचाओं द्वारा (ईश्वर) की प्रशंसा) बहुत प्रकार से विभाग पूर्वक का है। ब्रह्मसूत्र (के) पदों द्वारा यह बात सबसे निश्चित (स्पष्ट) तरीके से कही गई है।

भगवद गीता - श्लोक 13.6 View

( मनुष्य की विशेषताएं यह है कि) नि:संदेह वह प्राणियों में श्रेष्ठ है। उसमें अपने श्रेष्ठ होने की भावना है। वह बुद्धिमान है। उसमें बहुत से छुपे हुए गुण हैं (जो और किसी प्राणी में नहीं)। उसमें ग्यारह इच्छाएं हैं। और पांच संवेदी अंग (Sensory organs ) हैं ।

भगवद गीता - श्लोक 13.7 View

सुख (समृद्धि) के साथ रहने की इच्छा । दुःख (से) घृणा, विवेक और बुद्धि का होना । धीरज का होना। इन सब मनुष्य शरीर के गुणों के बारे में, और भावनाओं के बारे में उदाहरण के साथ संक्षिप्त में (यहाँ वर्णन किया जा रहा है)।

भगवद गीता - श्लोक 13.8 View

विनम्र स्वभाव का होना, दिखावटीपन न होना, अहिंसा को पसंद करना, क्षमा करने वाला होना, स्वभाव में सरलता का होना, गुरु की सेवा करना, स्वच्छता को पसंद करना, स्वभाव में दृढ़ता का होना, मन को वश में रखना ।

भगवद गीता - श्लोक 13.9 View

मन को आनंद देने वाले वस्तुओं को छोड़ देना (इच्छा न रखना)। अहंकार की भावना को वश में रखना और नि:संदेह, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था, बिमारी, दुःख, दोष (अपूर्णता) (के कारण और अवस्था को) सदैव नजर में रखना ।

भगवद गीता - श्लोक 13.10 View

संसार में अधिक रुचि न रखना। पत्नी, पुत्र, घर गृहस्थी ( के प्रेम में) न जकड़ना। अच्छे और कठिन परिस्थितियों का सामना हो तो सदैव धीरज रखना (एक समान रहना )।

भगवद गीता - श्लोक 13.11 View

और निरंतर मेरी बिना संगम (शिर्क) के प्रार्थना करना । एकांत स्थान पर रहने की) इच्छा रखना। आम लोगों के समूह से दूर रहना ।

भगवद गीता - श्लोक 13.12 View

(अध्यात्म) ईश्वर (प्रोक्तम्) यह घोषणा करता है कि (ज्ञान) (धर्म का जो) ज्ञान है (तत्त्वज्ञान) वही सत्य ज्ञान है (अर्थ) और इसी उद्देश्य से (एतत्) यह सब (ज्ञानम्) ज्ञान (दर्शनम्) (हे अर्जुन) आपको दिखाया गया है (इति) इस लिए (अतः अन्यथा) इसके अतिरिक्त (यत्) जो कुछ (ज्ञान है) (अज्ञानम् ) उन्हें अज्ञानता समझो।

भगवद गीता - श्लोक 13.13 View

(यत) वह जो (ज्ञेयम्) जानने के योग्य है (तत) उस (के बारे में अब मैं) (प्रवक्ष्यामि ) बताउंगा (यत) जिसे (ज्ञात्वा) जानकर (अमृतम्) स्वर्ग (अनुते) मिलता है (मत् परम्) (जो) मेरा सब से महान दिव्य स्थान है (ब्रह्म) ईश्वर (न) न (सत) आध्यात्मिक (रुहानी / Spiritual है) (न) न (तत्) वह (असत्) भौतिक (मादी / Materialistic है) (उच्यते) कहते हैं ( वह ईश्वर) (अनादि) बिना आरंभ के है (अजन्मा है ) |

भगवद गीता - श्लोक 13.14 View

उस (ईश्वर के) हाथ पैर हर दिशा में हैं (अर्थात उसकी पकड़ हर स्थान पर है)। हर तरफ (उस ईश्वर की) आँखे, सिर और मुख है (अर्थात हर वस्तु पर उसकी नज़र है)। हर तरफ ब्रह्मांण्ड में उसके कान है, (अर्थात वह हर एक की सुनता है)। सबकी रचना करके (निर्माण करके) वह स्थित है। (हर चीज़ उसके नियंत्रण में है)

भगवद गीता - श्लोक 13.15 View

(वह ईश्वर) सभी इन्द्रियों (Sensory organ) (और) गुणों (को) प्रकाशित करने वाला है, (उनमें जान डालने वाला है)। (किन्तु वह) सभी इन्द्रियों के बिना है और वह सबको पालता है, किन्तु वह किसी पर निर्भर नहीं (किसी की सहायता से जुड़ा नहीं है)। नि:संदेह (वह ईश्वर) (मनुष्यों में) गुणों का रचयिता है, किन्तु वह (स्वयम) निर्गुण है।

भगवद गीता - श्लोक 13.16 View

निःसंदेह, वह (ईश्वर) जीवित और अजीवित प्राणियों के बाहर और भीतर है और वह अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण जानने में नहीं आता और (वह ईश्वर) दूर से दूर तथा नजदीक से नज़दीक भी है।

भगवद गीता - श्लोक 13.17 View

(वह ईश्वर) अविभाजित (undivided) है (बंटा हुआ नहीं है)। और (उसने) सभी प्राणियों को विभाजित किया है और स्थित किया है और (वह ही) सभी प्राणियों को पालने वाला और वह (ईश्वर) सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला (और) संहार (मारने) वाला है।

भगवद गीता - श्लोक 13.18 View

कहा जाता है, कि वह ईश्वर प्रकाश देने वालों का (ज्ञानियों का) प्रकाश है (ज्ञान हैं)। वह (ईश्वर) सभी दोषों से मुक्त है ( ईश्वर को केवल) ज्ञान के द्वारा ही जाना जा सकता है। (उस ईश्वर को) हर चिज़ का ज्ञान है। (कारण के) वह हर एक के हृदय में रहता है । भाग्य क्या है?

भगवद गीता - श्लोक 13.19 View

इस तरह मनुष्य का शरीर (और उसके गुण) और धार्मिक ज्ञान और जानने के योग्य (ईश्वर के बारे में तुम्हें) संक्षिप्त में कहा गया। (ईश्वर ने कहा कि) यह सब जानकर मेरी भक्ति करने वाले (भक्त) मेरी इच्छा पर चलाने वाला स्वभाव पर लेते है।

भगवद गीता - श्लोक 13.20 View

नि:संदेह भाग्य और मनुष्य दोनों भी ( eternal) अनादि ईश्वर से जानो। मनुष्य के शरीर में जो बदलाव होता है और मनुष्य में जो गुण हैं, नि:संदेह (ईश्वर की) प्राकृतिक शक्ति से उत्पन्न किए जाते हैं ऐसा जानो।

भगवद गीता - श्लोक 13.21 View

ईश्वर ने कहा, कर्म करने के कारण, कर्मों को करने वाला (यह सब) भाग्य के कारण होते है। ईश्वर यह भी कह रहा है कि मनुष्य सुख-दुःख का जो अनुभव करता है उसका कारण भी भाग्य है।

भगवद गीता - श्लोक 13.22 View

भाग्य में विश्वास रखने वाला मनुष्य अनुभव करते हैं कि मनुष्य के गुण, और कर्म करने के कारण, भाग्य से ही उत्पन्न होते हैं और मनुष्य वीर्य स्थिती से ही (सत्य) अच्छे और बुरे गुणों के साथ जन्म लेता है।

भगवद गीता - श्लोक 13.23 View

ईश्वर साक्षी है (अर्थात सृष्टि में आरम्भ से अन्त तक जो हो चुका और होगा वह उसे देख रहा है।) ब्रह्माण्ड में जो कुछ होता है वह उसके आदेश से होता है और (वह) प्राणियों का पालन पोषण करता है। सारी प्रार्थनाएं उसी ईश्वर के लिए की जाती हैं। वह ईश्वर सबसे महान है और (ईश्वर) कह रहा है कि, निःसंदेह वह इस शरीर वाले मनुष्य होने से परे है (महान है), और आत्मा से भी महान है।

भगवद गीता - श्लोक 13.24 View

इस तरह जो व्यक्ति भाग्य को, और मनुष्य को गुणों के साथ जान लेता है, और हर तरफ जो कुछ हो रहा है (अर्थ जो कुछ हो है वह रहा भाग्य और ईश्वर के आदेश से हो रहा है ऐसा मान लेता है तो) नि:संदेह वह (नरक में ) बार बार जन्म नहीं लेता है।

भगवद गीता - श्लोक 13.25 View

कुछ लोग स्वयं से (स्वयम्) विचार करके। दूसरे (कुछ लोग) अपने मन और बुद्धि को वेदों के ज्ञान से जोड़कर (अर्थात ज्ञान द्वारा)। कुछ दूसरे लोग अपने कर्मों को (ईश्वर आदेश से) जोड़कर (अर्थात सत्यकर्म करके), ईश्वर को पहचानते हैं (ईश्वर का अनुभव करते हैं। विवेक प्राप्त करते हैं)

भगवद गीता - श्लोक 13.26 View

इस तरह ( इन तीनों प्रकार से) (ईश्वर को) न जानते हुए कुछ लोग दूसरों से (ईश्वर के बारे में) सुनकर ईश्वर की प्रार्थना करते हैं और यह सुनकर कर्म करने वाले भी नि:संदेह मृत्यु स्थान (नर्क) पार कर जाते हैं (स्वर्ग प्राप्त करते हैं)।

भगवद गीता - श्लोक 13.27 View

जो भी अस्तित्व में आ रहा है, इस ब्रह्माण्ड कुछ में, रुकी हुई (अजीवित) (या) गतिशील (जीवित), हे भरत वंशियो में श्रेष्ठ (अर्जुन) ! इस सत्य को जान लो कि वह मनुष्य और ईश्वर के संयोग से ( एक साथ मिलने से है )

भगवद गीता - श्लोक 13.28 View

(वह) जो सम्पूर्ण प्राणियों को महान ईश्वर के समान नियम के अनुसार स्थित देखता है। (अर्थात नाशवान प्राणियों को) अविनाशी ईश्वर (से स्थित देखता है) (तो) वह (वास्तव में सही) देखता है।

भगवद गीता - श्लोक 13.29 View

(जब कोई व्यक्ति) ईश्वर के समान प्राकृतिक नियमों को हर जगह समान रूप से लागू देखता है, तब नि:संदेह (वह) न अपने मन को (और न) अपनी आत्मा को नष्ट करता है। (और वह जीवन के) सबसे महान लक्ष्य (अर्थात स्वर्ग को भी) पा लेता है।

भगवद गीता - श्लोक 13.30 View

वह जो यह देखता है कि सारे कर्म भाग्य से (ईश्वर के आदेश से ही) किए जाते हैं और (वह अनुभव करता है कि) वह स्वयम कुछ नहीं करता है। तब निःसंदेह, वह विवेक वाला है। (ईश्वर को पहचानने वाला है)

भगवद गीता - श्लोक 13.31 View

जब कोई अलग अलग स्वभाव के प्राणियों को और इस फैलते हुए ब्रह्माण्ड को एक (ईश्वर से) स्थित देखता है, तब वह नि:संदेह ईश्वर को पा लेता है। नोट: वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्माण्ड फैल रहा है।

भगवद गीता - श्लोक 13.32 View

हे कुन्ति पुत्र (अर्जुन)। वह (ईश्वर) आरंभ के बिना है (अजन्म है)। (उसमें मनुष्य जैसे) गुण नहीं, ईश्वर महान है, अविनाशी है। वह हृदय में स्थित है, (किन्तु) (वह न) कुछ करता है (और) न (ही) किसी से जुड़ा है।

भगवद गीता - श्लोक 13.33 View

जिस प्रकार सूक्ष्म आकाश सब जगह व्याप्त है, किन्तु किसी से जुड़ा नहीं है। इसी प्रकार ईश्वर (का तेज) सब जगह (और) शरीर में (भी) व्याप्त ( फैला है, समाया हुआ है) (किन्तु) किसी से जुड़ा हुआ नहीं है।

भगवद गीता - श्लोक 13.34 View

हे अर्जुन जिस प्रकार एक सूर्य इस (संसार को) प्रकाशित (जीवित) करता है। इसी प्रकार इस शरीर को (केवल एक) ईश्वर (ही) प्रकाशित (जीवित) करता है।

भगवद गीता - श्लोक 13.35 View

जो लोग मनुष्य के शरीर को और मनुष्य को जानने वाले (ईश्वर के) अन्तर को ज्ञान की दृष्टि से देखते हैं। (ज्ञान के प्रकाश में देखते हैं और जानते हैं कि ईश्वर रचयिता है, मनुष्य रचना है। दोनों कभी एक नहीं हो सकते) इसी तरह (वह) प्राणियों को (और) प्रकृति (सृष्टि) को जानता है कि यह ईश्वर की रचना है और ईश्वर से क्षमा मिलने के मार्ग को भी जानता है, तो वह लोग ईश्वर के परमधाम (स्वर्ग) को पा लेते हैं।