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अध्याय 4 - ज्ञान कर्म सन्यास योग


INTRODUCTION :


इस अध्याय में वह दिव्य ज्ञान है जिसे जान कर और अपनाकर मनुष्य इस सांसारिक जीवन में भी सफल होगा और मृत्यु के बाद के जीवन में भी सफल होगा।

SUMMARY OF SHLOKS :


● श्लोक नं. ४. १ में ईश्वर ने प्राचीन काल में कैसे दिव्य ज्ञान मानवजाति को दिया था इसका वर्णन है।

● यह दिव्य ज्ञान कैसे नष्ट हो गया इसका उल्लेख श्लोक नं. ४.२ में है।

● श्लोक नं. ४.३ में ईश्वर ने कहा कि वही प्राचीन काल का दिव्य ज्ञान आज वह अर्जुन को दे रहें हैं।

● श्लोक नं. ४.७-४.८ में ईश्वर मानवजाति का कैसे मार्गदर्शन करता है इसका वर्णन है।

● श्लोक नं. ४.९ से ४.११ में दिव्य ज्ञान प्राप्त करने के लाभ का वर्णन है। यह लाभ है स्वर्ग की प्राप्ती ।

● श्लोक नं. ४.१२ में दिव्य ज्ञान को न मानने के कारण का वर्णन है।

● श्लोक नं. ४.१३-४.१४ में ईश्वर ने उन मूर्खो को अपना परिचय दिया जो जल्दी समृद्धी पाने के लिए किसी और की प्रार्थना करते हैं।

● श्लोक नं. ४.१५ में दिव्य ज्ञान प्राप्त करने की प्रेरणा है।

● श्लोक नं. ४.१६ ४.१७ में दिव्य ज्ञान के महत्त्व का वर्णन है।

● श्लोक नं. ४.१८ - ४.१९ में दिव्य ज्ञान से होने वाले लाभ का वर्णन है।

● श्लोक नं. ४.२० से ईश्वर ने उपदेश देने का आरम्भ किया और पहला उपदेश है कि निःस्वार्थ कर्म करो।

● श्लोक नं. ४.२१ में दूसरा उपदेश यह है कि मन और बुद्धि को वश में करके काम भावना को वश में किया जा सकता है। कारण यह कि काम भावना ही पाप का मुख्य कारण हैं।

● श्लोक नं. ४.२२ में तीसरा उपदेश यह है कि संतुष्ट रहो और इच्छाओं को वश में रखो, तभी अनिवार्य कर्तव्य पूरे किए जा सकते हैं ।

● श्लोक नं. ४.२३ में चौथा उपदेश है कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की उपासना न करो।

● श्लोक नं. ४.२४ में पाँचवां उपदेश है कि ईश्वर के लिए सब कुछ बलिदान कर दो और सब कुछ केवल ईश्वर से मांगो।

● श्लोक नं. ४.२५ से ४.२९ तक बहुत प्रकार की प्रार्थनाओं का वर्णन है।

● श्लोक नं. ४.३० में ईश्वर की प्रार्थनाओं के लाभ का वर्णन है।

● श्लोक नं. ४.३१ में प्रार्थना न करने के हानि का वर्णन है।

SHLOKS :

भगवद गीता - श्लोक 4.1 View

ईश्वर ने कहा! मैंने इस कभी न बदलने वाले और ईश्वर से जोड़ने वाले ज्ञान को विवस्वत से कहा था । विवस्वत ने मनु (से) कहा। मनु ने (इस दैविक ज्ञान को) इक्ष्वाकु से कहा।

भगवद गीता - श्लोक 4.2 View

हे अर्जुन! इस तरह ( गुरु से छात्र को दी जाने वाली शिक्षा की) परंपरा के द्वारा यह महान (और) दिव्य ज्ञान राज-ऋषियों ने भी प्राप्त किया। उसको जाना (और उसके अनुसार राज

भगवद गीता - श्लोक 4.3 View

नि:संदेह प्राचीन काल में जो दिव्य ज्ञान मेरे (द्वारा ) कहा गया था। यह वही (दिव्य ज्ञान है) (जो) आज (मैं तुमसे कह रहा हूँ)। (तुम) मेरे भक्त (और) मित्र हो, इस कारण नि:संदेह (तुम) इस महान (दिव्य ज्ञान के) रहस्य (को समझ सकोगे)।

भगवद गीता - श्लोक 4.4 View

अर्जुन ने प्रश्न किया (हे कृष्ण) विवस्वत (का) जन्म पहले हुआ। बाद में आपका जन्म हुआ। (तो मैं यह) कैसे समझू की तुमने यह (दिव्य ज्ञान) प्राचीन काल में (विवस्वत से) कहा था।

भगवद गीता - श्लोक 4.5 View

ईश्वर ने कहा, हे अर्जुन! मैं और तुम (इस धरती पर) बहुत बार संसार के सम्मुख आ चुके हैं। मैं उन सबको जानता हूँ। (किन्तु) तुम (उन सबको) नहीं जानते। (इस श्लोक को समझने के लिए कृपया नोट नं. N-९.१ पढ़िए।)

भगवद गीता - श्लोक 4.6 View

नि:संदेह मैं (ईश्वर) जन्म नहीं लेता हूँ। मैं (ईश्वर) अविनाशी हूँ (अर्थात मृत्यु मेरे लिए नहीं है) (और मैं) सर्व प्राणियों का (जन्मदाता) ईश्वर हूँ। (मैं) अपनी ईश्वरीय शक्ति से (संसार में दूत) उत्पन्न करता हूँ। (और अपनी ईश्वरीय शक्ति से) ऐसी मायावी प्रणाली स्थापित करता हूँ जो मनुष्य का मार्गदर्शन भी करे और परीक्षा भी ले।

भगवद गीता - श्लोक 4.7 View

हे अर्जुन! निःसंदेह जब-जब धर्म में गिरावट होने लगती है। और अधर्म बढ़ने लगता है। तब मैं तब मैं खुद (दिव्य ज्ञान) प्रदान करता हूँ। (नोट- यह पवित्र पुस्तक 'भगवद् गीता' ईश्वर का प्रदान किया हुआ दिव्य ज्ञान है।)

भगवद गीता - श्लोक 4.8 View

(सत्य मार्ग पर चलने वाले) धार्मिक लोगों की रक्षा करने के लिए। अधर्मियों का विनाश करने और धर्म की भलीभाँति स्थापना करने के लिए मैं हर युग में (दूत) उत्पन्न करता हूँ (जन्म देता हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 4.9 View

हे अर्जुन! मेरे जन्म कर्म दिव्य हैं (भौतिक नहीं है।) इस प्रकार (अर्थात मेरे जन्म कर्म सब दिव्य हैं और मैं मनुष्य की तरह धरती पर जन्म नहीं लेता) जो मनुष्य इस सत्य को जान लेता है (तो उसे) देह को त्यागने के बाद (मृत्यु के बाद) (नर्क में) बार-बार जन्म नहीं मिलता है। उसे मैं मिलता हूँ। (अर्थ मेरी कृपादृष्टि और स्वर्ग मिलता है।)

भगवद गीता - श्लोक 4.10 View

बहुत से लोग ज्ञान के प्रकाश में तप करके पवित्र हुए। (और) लालच, ड़र और क्रोध से मुक्ति पाई। (उन्होंने) मन से मेरे आज्ञा का पालन किया। (और) मेरी शरण ली। (इसलिए उन्हें ) मेरा आशीर्वाद मिला।

भगवद गीता - श्लोक 4.11 View

हे अर्जुन! जो जिस प्रकार मेरी शरण लेता है। मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ। मनुष्य (को) सब प्रकार से ( केवल) मेरे मार्ग का अनुसरण करना चाहीए ।

भगवद गीता - श्लोक 4.12 View

इसी संसार में कर्मों से उत्पन्न (होने वाले) अच्छे फल (मिल जाए, अर्थात धन, संपत्ती, उन्नती मिले)। इस (लिए) इस लोक में मनुष्य कर्मों के अच्छे फल जल्दी से मिलने की चाह में देवताओं की उपासना करने लगते हैं। दिव्य ज्ञान का महत्त्व

भगवद गीता - श्लोक 4.13 View

गुणों (और) काम करने की क्षमता के अनुसार समाज में चार वर्णों की रचना, मैंने की है। मैं ही (इस सृष्टी रचना का) कर्ता हूँ। फिर भी मुझे अविनाशी ईश्वर को इन का कर्ता मत मानो। नोट: (इसका कारण अगले श्लोकों में बताया गया है।)

भगवद गीता - श्लोक 4.14 View

ना मुझे सृष्टि की रचना और मानव कल्याण के कर्म आकर्षित करते हैं। (और) न मुझे अपने कर्म फल की चाह है। (अर्थात मैं सब कुछ निःस्वार्थ करता हूँ) । इस प्रकार वह जो मुझे जानता है। वह (भी) कर्मों के (फल मिलने की लालसा में) नहीं बँधता । (अर्थात वह भी ईश्वर की तरह निःस्वार्थ कर्म करने लगते है)

भगवद गीता - श्लोक 4.15 View

पूर्वकाल के मोक्ष चाहने वालों ने भी इस प्रकार (निःस्वार्थ कर्म के प्रणाली को) जानकर कर्म किये हैं। इसलिए तुम (भी) पूर्वजों के द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही (उन्हीं की तरह निःस्वार्थ) करो।

भगवद गीता - श्लोक 4.16 View

कर्म (धार्मिक कर्तव्य) क्या है? (और) अकर्म (वह कर्म जो नहीं करने चाहिए वह ) क्या है? इस प्रकार इस विषय में विद्वान भी भ्रमित ( उलझन में पड़ जाते हैं,) अब वह कर्म-तत्त्व (मैं) तुम्हें समझाऊंगा। जिसको जानकर (तुम ) अशुभ (कर्म करने से) मुक्त हो जाओगे।

भगवद गीता - श्लोक 4.17 View

सत्कर्म (धार्मिक कर्तव्य) भी जानना चाहिए। और वह कर्म जो नहीं करना है (उनको भी) जानना चाहिए तथा कर्म के न करने (को भी) जानना चाहिए। क्योंकि कर्मों के (तत्त्वज्ञान) की गहराई में पहुंचना कठिन है।

भगवद गीता - श्लोक 4.18 View

जो मनुष्य कर्म करने में कर्म ना करना देखता है । और जो कर्म ना करने में कर्म करना देखता है। वह मनुष्यों में बुद्धिमान है। वह सभी सत्कर्म करने में संयुक्त है (लगा हुआ है)।

भगवद गीता - श्लोक 4.19 View

वह (जिसने) आरम्भ से ही अपनी काम भावना (अपनी इच्छाओं) को न मानने का संकल्प लिया है। (वह जिसके) सभी कर्म दैविक ज्ञान की अग्नि में जल कर शुद्ध हो गए हैं। वह बुद्धिमान ज्ञानी कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 4.20 View

(वह जिसने अपने) सत्कर्मों के फल की चाह को छोड़ दिया हो। वह सदैव तृप्त (संतुष्ट) रहता है । और किसी के सहारे नहीं रहता। वह अपने कर्म करने में लगा रहता है। फिर भी (वह) कभी नहीं (सोचता है कि) वह कोई कर्म कर रहा है। (वह यही सोचता है कि जो कुछ हो रहा है, वह ईश्वर की आज्ञा और इच्छा से हो रहा है।) महत्त्वपूर्ण दिव्य ज्ञान

भगवद गीता - श्लोक 4.21 View

( वह जो किसी मनुष्य से कोई ) अपेक्षा नहीं रखता है। (वह जिसने) मन और बुद्धि (को) वश में रखा है। (वह जिसने) आनंद लेने के और दिखावे के सभी वस्तुओं को त्याग दिया है। (और जो) केवल अपने शरीर को जीवित और स्वस्थ रखने के लिए कर्म करता है। (वह) पाप नहीं कमाता है । (क्योंकी पाप तो आनंद लेने, दिखावा करने, मन और बुद्धि को वश में न रखकर कर्म करने से होते है।)

भगवद गीता - श्लोक 4.22 View

(वह जो) अपने आप मिलने वाले लाभ से सन्तुष्ट रहता है। वह जिसने बहुत ज्यादा दुःखी और खुश होना छोड़ दिया है। वह जो ईर्ष्या (जलन) से मुक्त है। (वह जो) सफलता और विफलता में एक समान रहता और अपने कर्तव्यों का भी पालन करता है वह कर्मों में नहीं बंधता।. (अर्थात उसके सभी अनिवार्य कर्म और कर्तव्य पूरे हो जाते हैं।)

भगवद गीता - श्लोक 4.23 View

(ऐसा व्यक्ति) मुक्त हो जाता है एक ईश्वर के किसी और की उपासना करने के रास्ते से। ज्ञान (के प्रकाश में वह ) अपने मन और बुद्धि को एक ईश्वर की श्रद्धा में स्थित कर देता है। वह अपने कर्म (केवल) ईश्वर को प्रसन्न करने वाले करता है। (इस प्रकार वह) पूर्णता (सारे पाप करने के अवसर और कारणों से) मुक्त हो जाता है।

भगवद गीता - श्लोक 4.24 View

(वह जिसने अपना जीवन) ईश्वर को अर्पण कर दिया है। (वह जो सब कुछ केवल) ईश्वर से मांगता है। (वह जो ईश्वर को) 'आदि'। सबसे पहला और महान मानता है। वह जिसकी साधना केवल ईश्वर के लिए होती है। (वह जो) कर्म (केवल) ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए करता है। नि:संदेह ( इन कर्मों के कारण) उस (ईश्वर की कृपा से) (वह) ईश्वर (के स्वर्ग को) प्राप्त करने के योग्य हो जाता है। अनेक प्रकार के प्रार्थना की पद्धति

भगवद गीता - श्लोक 4.25 View

नि:संदेह कुछ सज्जन पुरुष ईश्वर की भक्ति और कर्तव्यपालन के लिए (ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए) ईश्वर को आदि (सबसे पहला और. महान) मानते हैं। और उसकी प्रार्थना करते हैं। कुछ (दुसरे) सज्जन पुरुष ईश्वर को प्रसन्न करने वाले कर्म के लिए अपने सत्कर्म ईश्वर को अर्पित करते हैं। (ईश्वर को प्रसन्न करने वाले कर्म निम्नलिखित हैं)

भगवद गीता - श्लोक 4.26 View

कुछ लोग अपने आनंद लेने वाले अंगो को नियंत्रित करने को सबसे महान कर्म मानते हैं। जैसे सुनने का कर्म, और उसकी आहुती देते हैं। (वह ऐसी बातें नही सुनते जो नहीं सुनना चाहिए ) । दुसरे लोग ईश्वर के नाम के जाप को सबसे महान मानते है। और आनंद करने की इच्छा और आनंद करने की वस्तुओं की आहुति देते हैं। (और ईश्वर के नामों का जाप करते रहते हैं)

भगवद गीता - श्लोक 4.27 View

कुछ लोग ज्ञान के प्रकाश में ईश्वर की प्रार्थना (और) अपने आप पर नियंत्रण करने को सबसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं। (और उसका अनुसरण / अभ्यास) करते हैं। कुछ लोग अपने सभी आनंद लेने वाले अंगो और इच्छाओं को और जीवित रहने के कर्म (खाने पीने को सबसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं) और उसकी आहुति देते हैं। (अर्थात उपवास रखते हैं।)

भगवद गीता - श्लोक 4.28 View

कुछ लोग (ईश्वर को प्रसन्न करने ) धन दान करते हैं। कुछ लोग तप करते हैं। कुछ लोग ध्यान लगाकर ईश्वर से जुड़ते हैं। कुछ लोग वेदों का अध्ययन करते हैं। तथा ज्ञान प्राप्त करके ईश्वर को प्रसन्न करते हैं। तथा कुछ लोग पूरा प्रयास करते हैं कि उन्होंने जो ईश्वर को वचन दिया है, वह पूरा करें। (व्रत पूरा करें।)

भगवद गीता - श्लोक 4.29 View

कुछ लोग बाहर निकलने वाली श्वास को अंदर आने वाली श्वास में, और अंदर आने वाली श्वास को बाहर जाने वाली श्वास में करके ईश्वर को अर्पित करते हैं। इसी तरह कुछ लोग अंदर आने वाली श्वास और बाहर जाने वाली श्वास की गति को रोककर, अंदर आने वाली श्वास को लम्बा करके एक ईश्वर में एकाग्रता की परिस्थिती में आ जाते हैं। और कुछ लोग ईश्वरीय नियमों के अनुसार भोजन लेकर भीतर आने वाली श्वास को भीतर आने वाली श्वास में रखकर ईश्वर की प्रसन्नता के लिए ईश्वर को अर्पित करते हैं। नि:संदेह यह सब लोग ईश्वर की उन प्रार्थनाओं को जानते थे जिससे ईश्वर प्रसन्न होता है। उन्होंने वह प्रार्थनाएं की, जिसके कारण उन्हें पापों से मुक्ति मिली।

भगवद गीता - श्लोक 4.30 View

कुछ लोग बाहर निकलने वाली श्वास को अंदर आने वाली श्वास में, और अंदर आने वाली श्वास को बाहर जाने वाली श्वास में करके ईश्वर को अर्पित करते हैं। इसी तरह कुछ लोग अंदर आने वाली श्वास और बाहर जाने वाली श्वास की गति को रोककर, अंदर आने वाली श्वास को लम्बा करके एक ईश्वर में एकाग्रता की परिस्थिती में आ जाते हैं। और कुछ लोग ईश्वरीय नियमों के अनुसार भोजन लेकर भीतर आने वाली श्वास को भीतर आने वाली श्वास में रखकर ईश्वर की प्रसन्नता के लिए ईश्वर को अर्पित करते हैं। नि:संदेह यह सब लोग ईश्वर की उन प्रार्थनाओं को जानते थे जिससे ईश्वर प्रसन्न होता है। उन्होंने वह प्रार्थनाएं की, जिसके कारण उन्हें पापों से मुक्ति मिली।

भगवद गीता - श्लोक 4.31 View

अपनी प्रार्थना के फलस्वरूप ( ईश्वर की प्रार्थना करने वाले) पाते हैं ईश्वर की सदा रहने वाला स्वर्ग, और अमर जीवन का आनंद । हे कुरुश्रेष्ठ! (अर्जुन) जो ईश्वर की प्रसन्नता के लिए प्रार्थना नहीं करते हैं, उन्हें) इस संसार में शांति नहीं मिलती है। (यदि इस संसार में शान्ति नहीं मिलती है तो) मृत्यु के बाद के जीवन में (शान्ति) कहाँ से मिलेगी ?

भगवद गीता - श्लोक 4.32 View

वेदों की वाणी में इस प्रकार के बहुत तरह के ईश्वर की प्रार्थना के वर्णन हैं। (हे अर्जुन, इस सत्य को) जानो की सत्कर्म करने से वह हमारे आचरण में जीवित होते हैं। इस प्रकार सभी ईश्वर की प्रार्थना के ज्ञान को जानकर उन पर अमल (अभ्यास) करके तुम अपने पापों से मुक्ति पाओगे।

भगवद गीता - श्लोक 4.33 View

हे अर्जुन! दिव्य ज्ञान ( के प्रकाश में) ईश्वर की प्रार्थना करना (यह) श्रेष्ठ है, सांसारिक वस्तुओं के दान द्वारा ( ईश्वर की प्रार्थना करने से )। हे अर्जुन! सारे कर्मों के सिद्धि (perfection) का आधार दिव्य ज्ञान की पूरी जानकारी पर है।

भगवद गीता - श्लोक 4.34 View

उस ईश्वर को जानो ज्ञानियों के चरणों के पास बैठकर उनसे सरलतापूर्वक प्रश्न करके, उनकी सेवा करके। वह तुम्हें दिव्य ज्ञान का उपदेश देंगे। यह वह ज्ञानी हैं जो तत्वदर्शी हैं (ईश्वर को पहचानते हैं)।

भगवद गीता - श्लोक 4.35 View

हे अर्जुन! इस (दिव्य ज्ञान) को जानकर ( तुम ) फिर से भ्रम (गुमराही) में नहीं पड़ोगे। इस (दिव्य ज्ञान द्वारा तुम) सम्पूर्ण प्राणियों को मुझसे देखोगे। दुसरे शब्दों में (उनका निर्माता) मैं (ही हूँ ऐसा देखोगे ) ।

भगवद गीता - श्लोक 4.36 View

यदि सारे पापियों में तुम सबसे बड़े पाप के कार्य करने वाले हो, तो भी निःसंदेह इस ज्ञान की नौका के द्वारा, पापों के समुद्र को बिना बाधा के पार कर लोगे।

भगवद गीता - श्लोक 4.37 View

हे अर्जुन! जिस प्रकार जलती हुई आग, इंधन (की लकड़ी को) भस्म कर देती है। ऐसे ही इस दिव्य ज्ञान का प्रकाश सम्पूर्ण पाप कर्मों को भस्म कर देती है।

भगवद गीता - श्लोक 4.38 View

नि:संदेह! इस दिव्य ज्ञान के जैसा इस संसार में (और) (कोई साधन) नहीं है (जो पापों से) पवित्र करे। इस (दिव्य ज्ञान के द्वारा) (व्यक्ति) स्वयम् ईश्वर से जुड़ जाता है और समय के बितने (गुजरने) के साथ वह अपने अन्दर संपूर्ण (शान्ति) पाता है।

भगवद गीता - श्लोक 4.39 View

जिसकी ईश्वर में दृढ श्रद्धा है, और जिसने अपने इन्द्रियों को वश में कर लिया है| (वही) इस दिव्य ज्ञान को प्राप्त करता है। इस दिव्य ज्ञान (के अनुसार प्रार्थना करके) (वह) उस महान ईश्वर (का आशिर्वाद) भी पा लेता है। (फिर) विलंब न करते हुए वह महान ( ईश्वर का) शान्ति स्थान (स्वर्ग) भी प्राप्त कर लेता है।

भगवद गीता - श्लोक 4.40 View

वह जिसे ईश्वरीय ग्रंथ का ज्ञान नहीं और (वह) जिसकी ईश्वर में श्रद्धा नहीं। और वह लोग जो ईश्वर और उसके अवतारित ज्ञान में संदेह (शक) करते हैं। उनका विनाश होगा। ऐसे संदेह करने वाले लोगों का न इस लोक ( पृथ्वी) में (भला होगा) न अन्य लोक ( में भला होगा) (और इन्हें) न कहीं सुख मिलेगा।

भगवद गीता - श्लोक 4.41 View

हे अर्जुन! जो ईश्वर से जुड़ने वाली प्रार्थना करता है, जो अपने सत्कर्मों (के फल को) छोड़ देता है, और जो ज्ञान के प्रकाश से अपने शक को दूर करता है और ईश्वर में दृढ़ श्रद्धा वाला ऐसा व्यक्ति कर्मों से बंधा नहीं रहता।

भगवद गीता - श्लोक 4.42 View

इस कारण, , हे अर्जुन! अज्ञान के कारण हृदय में जो संशय जन्म लेता है। उन्हें इस ईश्वर के ज्ञान की तलवार से काट दो। ईश्वर की प्रार्थना में स्थित रहो और (युद्ध के लिए) खड़े हो जाओ।