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अध्याय 6 - आत्म संयम योग


INTRODUCTION :


● अध्याय नं. २ में हमने जाना की हमारे शरीर के अन्दर ईश्वर की ओर से एक रुह है जो अमर है। इस कारण मनुष्य के मृत्यु से उसका अन्त नहीं हो जाता है।
मनुष्य अपनी इच्छा अनुसार जीवन व्यतीत करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। उसके कुछ अनिवार्य कर्तव्य हैं जो उसे करने ही होंगे। और कर्मों को अच्छी तरह करने के लिए ईश्वर में श्रद्धा सबसे जरुरी है।

● अध्याय नं. ३ में अनिवार्य कर्तव्य (कर्मबंधन) का विस्तार से वर्णन है।

● अध्याय नं. ४ में दिव्य ज्ञान का वर्णन है। जब दिव्य ज्ञान होगा तब ही अनिवार्य कर्तव्य ठिक तरह से होंगे।
अध्याय नं. ५ में अनिवार्य कर्म के दो भाग किए। पहला व्यक्तिगत जीवन से जुड़ा योगः । दुसरा सामाजिक जीवन से जुड़ा कर्म सन्यास।

● इन दोनों को पूरा करने के लिए ईश्वर में श्रद्धा और उसकी प्रार्थना अतिआवश्यक है। इस ६ अध्याय में इसी का वर्णन है।

● हम कर्म योग और कर्म-सन्यास, काम भावना और प्रबल इच्छाओं के कारण नहीं कर पाते हैं। ईश्वर में ध्यान लगने से हम काम भावना और इच्छाओं को वश में कर सकते हैं। इस कारण इस ६ अध्याय में ध्यान योग का विस्तार से वर्णन है।

SUMMARY OF SHLOKS :


● कर्म सन्यास यह नि:स्वार्थ जनसेवा का नाम है। निःस्वार्थ सेवा या फल की आशा न करना ही सन्यास है। श्लोक नं. ६.१ से ६.४ में सन्यासी व्यक्ति और संन्यास के महत्त्व का वर्णन है।

● कर्म योग और कर्म सन्यास करने के मार्ग पर हमारा अपना मन और रजो गुण और तमो गुण वाली आत्मा सबसे बड़ी रुकावट है। श्लोक नं. ६.५ से ६.७ में इसी का वर्णन है।

● श्लोक नं. ६.८ ६.९ में मन और आत्मा को वश में करने के महत्त्व का वर्णन है।

● श्लोक नं. ६.१० से ६.१५ तक ध्यान लगाने के पद्धति का वर्णन है।

● श्लोक नं. ६.१६ में कौन ध्यान नहीं लगा सकता है उसकी जानकारी है।

● श्लोक नं. ६.१७ में सारे कष्टों को दूर करने का उपाय है।

● श्लोक नं. ६.१८ से ६.२२ मे ध्यान योग के लाभ का वर्णन है।

● श्लोक नं. ६.२३ से ६.२४ तक कर्म योगियों और कर्म सन्यासियों के लिए महत्त्वपूर्ण उपदेश है।

● श्लोक नं. ६.३० से ६.३२ में ध्यान योग से कर्म योगी और कर्म सन्यासी के स्वभाव में जो बदलाव आता है उसका वर्णन है।

● श्लोक नं. ६.३३ से ६.३६ में ध्यान योग करने में जो बाधाऐं आती हैं उनका वर्णन है।

● श्लोक नं. ६.३७ से ६.४३ में वह योगी जो अपने कर्तव्य को भली भाँति पूरा नहीं कर पाते हैं, मृत्यु के बाद उनके साथ क्या होगा इसका वर्णन है।

● श्लोक नं. ६.४६ और ६.४७ में कर्मयोगी के उंचे स्थान का वर्णन है।

SHLOKS :

भगवद गीता - श्लोक 6.1 View

ईश्वर ने कहा, जो (व्यक्ति) सत्कर्म को कर्तव्य समझकर करता है। (और) अपने सत्कर्म के फल की आशा नहीं रखता (अर्थात कर्मों को निस्वार्थ करता है)। वही व्यक्ति संन्यासी है और कर्म योगी है। और न वह व्यक्ति जो अग्नि (पर बना भोजन नहीं खाता), और न वह जो कोई कर्म नहीं करता (सांसारिक जीवन को जिसने त्याग दिया हो।)

भगवद गीता - श्लोक 6.2 View

इस प्रकार, हे अर्जुन, जिसे सन्यास (नि:स्वार्थ कर्म करना) कहते हैं, उसी को ईश्वर की प्रार्थना जानो। नि:संदेह बिना निःस्वार्थ कर्म करने के संकल्प के कोई भी "कर्म-योगी" नहीं बन सकता।

भगवद गीता - श्लोक 6.3 View

ईश्वर ने कहा कि, वह कर्म जिससे व्यक्ति ईश्वर से जुड़ जाता है। (उन कर्मों के कारण वह पवित्र व्यक्ति भक्ति के पहले चरण में होता है। ईश्वर ने कहा कि धैर्या, वासनाओं पर रोक, शांत और संतुष्ट रहने के कारण वह पवित्र व्यक्ति, निसंदेह भक्ति के उच्चतम चरण में होता है।

भगवद गीता - श्लोक 6.4 View

ईश्वर ने कहा की जब सन्यासी इस बात का संकल्प करता है कि न (तो वह) आनंद का अनुभव कराने वाले वस्तुओं का उपयोग करेगा। (और) न सब अनावश्यक काम (करेगा)। तब (वह व्यक्ति) भक्ति के अंतिम चरण में होता है।

भगवद गीता - श्लोक 6.5 View

निःसंदेह, मनुष्य को चाहिए की अपनी आत्मा को ऊपर उठाए (पवित्र करें)। मनुष्य को चाहिए कि (अपनी आत्मा को) नीचे की तरफ न ले जाए (अपवित्र न करे ) । आत्मा मनुष्य की मित्र है, और आत्मा (ही) मनुष्य की शत्रु भी है।

भगवद गीता - श्लोक 6.6 View

जिस व्यक्ति ने अपनी आत्मा (को) जीत लिया, उसके लिए उसकी आत्मा मित्र हो जाती है। किन्तु वही आत्मा उस व्यक्ति की, जिसने उसे वश में नहीं किया है, शत्रु होती है और नि:संदेह सदैव शत्रु की तरह व्यवहार करती है।

भगवद गीता - श्लोक 6.7 View

वह जो आत्मा को जीत लेता है। वह शान्ति से रहता है। (और) सर्दी (दरिद्रता), गर्मी (समृद्धि), सुख-दुःख, इसी प्रकार मान अपमान (में भी) दृढ़ता से ईश्वर की प्रार्थना में लगा रहता है।

भगवद गीता - श्लोक 6.8 View

इसी प्रकार जिसका मन संतुष्ट है। जिसने अपनी इच्छाओं को वश में कर रखा है, जो दिव्य ज्ञान विज्ञान की शिक्षा पर दृढ़ता से स्थित है। जिसके लिए मिट्टी का ढेला, पत्थर, और स्वर्ण एक जैसे हैं। उसे ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ योगी कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 6.9 View

(जब ऐसा भक्त) दोस्त और शत्रु से समान व्यवहार करता है। कपट करने वालों, सम्बन्धियों, भलाई के कर्म करने वालों और पापियों से भी नि:पक्ष रहते हुए समान बुद्धि अर्थात न्याय के साथ निर्णय करने वाला होता है, (तब वह और भी) श्रेष्ठ हो जाता है। ध्यान योग की पद्धती

भगवद गीता - श्लोक 6.10 View

ईश्वर की प्रार्थना करने वाले को चाहिए कि ईश्वर की प्रार्थना के लिए सदैव अपने आपको शान्त स्थान पर ले जाए। एकांत में अपने आपको स्थित करके, नम्रता से, इच्छाओं को त्याग कर अपने मन और बुद्धि को ईश्वर के ध्यान में लगाए ।

भगवद गीता - श्लोक 6.11 View

पवित्र धरती जो न बहुत अधिक उँची हो और न बहुत अधिक नीची हो, उस पर घास अथवा पतला मुलायम वस्त्र अथवा मृगछाला बिछाकर अपने आपको मजबूती से स्थित करके बैठ जाए।

भगवद गीता - श्लोक 6.12 View

इस आसन पर बैठकर, मन, इच्छाओं और कर्मों को वश में करके, मन में केवल एक सबसे श्रेष्ठ ईश्वर को (ख हुए), ईश्वर की प्रसन्नता और मन को (बुरे कर्मों से) पवित्र करने के लिए ईश्वर के स्मरण में लीन हो जाओ।

भगवद गीता - श्लोक 6.13 View

शरीर, (सिर) मस्तिष्क और गर्दन को सीधा रखकर, मन को किसी (की ओर) न भटकाकर, एक ईश्वर की याद को स्थिर करके, किसी भी दिशा में न देखते हुए, अपनी नाक के अगले भाग की जगह पर देखते हुए।

भगवद गीता - श्लोक 6.14 View

शान्त मन और भय के बिना, दृढ़ संकल्प के साथ की ईश्वर के आदेश अनुसार जीवन व्यतीत करेंगे, अपने विचारों पर संयम रखो, और मुझे सबसे महान मानते हुए बैठो, और मुझमें अपने ध्यान को लगाओ।

भगवद गीता - श्लोक 6.15 View

इस तरह भक्त, सदैव अपने मन को वश में रखकर, नियोजित समय अनुसार भक्ति करते हुए, (संसार में) सच्ची शान्ति (और मरने के बाद) मेरे धाम यानी स्वर्ग के सबसे श्रेष्ठ शान्ति वाले धाम को पाता है।

भगवद गीता - श्लोक 6.16 View

हे अर्जुन! लेकिन सच तो यह है कि भक्ति न बहुत अधिक भोजन करने वाला कर सकता है। और न बिलकुल भूखा रहने वाला कर सकता है । और न बहुत अधिक सोने वाला कर सकता है। और न ही हर समय जागने वाला कर सकता है।

भगवद गीता - श्लोक 6.17 View

ईश्वर के आदेश अनुसार भोजन करना और जीवन व्यतीत करना । ईश्वर के आदेश अनुसार प्रयत्न और कर्म करना । ईश्वर के आदेश अनुसार सोना और जागना । (यही ईश्वर की) प्रार्थना है। (और) यही सभी दुःखों से मुक्ति पाने का उपाय है।

भगवद गीता - श्लोक 6.18 View

जब मनुष्य मन की इच्छाएं पूरी करने की सभी (चाह को) त्याग देता है और विशेष रूप से ईश्वर (के आदेश का पालन करने में) स्थित रहता है, तो ऐसे मनुष्य को (ईश्वर की प्रार्थना में पूरी तरह लगा हुआ) कहा जाएगा।

भगवद गीता - श्लोक 6.19 View

ईश्वर याद दिला रहा है कि जिस तरह बिना हवा के स्थान पर (रखा हुआ) दीप टिमटिमाता नहीं। इसी तरह उस भक्त का (जिसका) मन वश में है (और), और आत्मा ईश्वर की प्रार्थना में व्यस्त रहती है। वह ईश्वर की प्रार्थना ( से डगमगाता नहीं ) ।

भगवद गीता - श्लोक 6.20 View

नि:संदेह, मनुष्य जब ( ईश्वर की याद में एकाग्र रहता है) (तो) स्वयम् (वह) ईश्वर के अस्तित्व का एहसास (अनुभव) करता है और संतुष्ट हो जाता है (शान्त हो जाता है)। और (यह) अन्दर की शान्ति की स्थिती और मन का ईश्वर जुड़ा होना बुरे कर्मों से बचने का कारण बनते से हैं।

भगवद गीता - श्लोक 6.21 View

नि:संदेह, वह भक्त जो समझ बूझकर इच्छाओं से दर हो जाता है और सबसे श्रेष्ठ सुख को जान जाता है तो फिर वह (एकाग्रता के द्वारा) उस ईश्वर की याद को स्थित करने से और ईश्वर की याद में लीन होने और सच्चाई का आभास करने से कभी भी नहीं हटता।

भगवद गीता - श्लोक 6.22 View

( ईश्वर की ओर से शान्ति ) प्राप्त होने के बाद (वह भक्त) उस ईश्वर के अतिरिक्त किसी और (शक्ति को) अधिक लाभ देने वाला नहीं मानता। उस (शान्त) स्थिती (के बाद वह भक्त) बहुत बड़े कठिन समय में भी डगमगाता नहीं।

भगवद गीता - श्लोक 6.23 View

मनुष्य को जानना चाहिए कि एकाग्र होकर की जाने वाली ईश्वर की प्रार्थना कठिन परिस्थितियों में पड़ने से बचा लेती है। इसलिए उस (ईश्वर की) प्रार्थना को एकाग्र मन और दृढ़ता के साथ करना चाहिए।

भगवद गीता - श्लोक 6.24 View

शरीर के आनंद का अनुभव करने वाले अंगो पर सभी ओर से नियंत्रण रखो और मन में उत्पन्न होने वाली सभी कामनाओं को पूरी तरह से मन से छोड़ देने का संकल्प करो।

भगवद गीता - श्लोक 6.25 View

मन में ईश्वर की याद को स्थित करो, और किसी चीज़ (या पूजे जाने वाले के बारे में) मत सोचो। (और) धीरे-धीरे अपने मन और सोच को (उनसे) दृढ संकल्प के साथ हटा लो।

भगवद गीता - श्लोक 6.26 View

जब-जब स्थिर न रहने वाला चंचल मन भटकने लगे तब-तब इस ( मन को) वहाँ से हटा कर ईश्वर (की याद के लिए) बाध्य कर देना चाहिए।

भगवद गीता - श्लोक 6.27 View

नि:स्संदेह उस ईश्वर की प्रार्थना करने वाले भक्त को मन की शान्ति और बहुत अधिक सुख प्राप्त होगा। ईश्वर की भक्ति में लगे मनुष्य के रजो गुण (और तमो गुण) भी शान्त (कम) होंगे, और पापों से मुक्ति भी पा लेगा।

भगवद गीता - श्लोक 6.28 View

ईश्वर की प्रार्थना करने वाला इस तरह जब अपने आपको सदैव एक ईश्वर की प्रार्थना में लगाता है तो वह ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव करके (इस जीवन में) शान्ति पाता है। (और इस जीवन के बाद) अत्यंत सुख-शान्ति वाले स्थान (स्वर्ग) को भी प्राप्त कर लेता है।

भगवद गीता - श्लोक 6.29 View

ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ मनुष्य सभी ओर एक जैसा दृश्य देखता है। (और वह देखता है। कि) वह स्वयम् सभी प्राणियों पर निर्भर है और सभी प्राणी ईश्वर पर निर्भर हैं।

भगवद गीता - श्लोक 6.30 View

वह व्यक्ति मुझे (ही) देखता है सभी ओर, (जो) सभी ओर (सभी चीज़ को) मेरी (रचना के रुप में) देखता है। (इस दृष्टिकोण के बाद) वह मुझसे दूर नहीं और न मैं उससे दूर हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 6.31 View

जो (व्यक्ति देखता है) सभी प्राणियों के अस्तित्व को (और) स्वीकार करता है कि उनका) अस्तित्व (केवल) मुझ एक ईश्वर से ही है (तो) वह भक्त सभी प्राणियों की सेवा का कर्म करता है, किन्तु (वह) कर्म मेरे लिए होते है।

भगवद गीता - श्लोक 6.32 View

हे अर्जुन! जो व्यक्ति सब प्राणियों के सुख-दुःख को अपने (सुख-दु:ख) के समान ही देखता है (तो) वह योगी सबसे श्रेष्ठ है यह मेरा निर्णय है।

भगवद गीता - श्लोक 6.33 View

अर्जुन ने कहा, हे कृष्ण ईश्वर की प्रार्थना के इस सबसे सही तरीके को जो आपने (मुझसे) कहा। मन के चंचल स्थिती के कारण मैं इस पर स्थिर रहना सम्भव नहीं देखता हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 6.34 View

हे कृष्ण!, नि:संदेह, मन चंचल, उत्तेजित, बलवान, ज़िद्दी (है)। इसको वश में करना मैं वायु (हवा) (को वश में करने ) जैसा बहुत कठिन मानता हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 6.35 View

ईश्वर ने कहा, हे अर्जुन! इसमें कोई संशय नहीं कि चंचल मन (को) वश में करना कठिन है। किन्तु हे अर्जुन, अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है।

भगवद गीता - श्लोक 6.36 View

बेकाबू (अनियंत्रित) मन (के कारण) ईश्वर में ध्यान लगाना कठिन है। अपनी क्षमता के अनुसार मन को वश में करने का प्रयास करने से) (ईश्वर में ध्यान लगा ) पाना सम्भव है। यह मेरा मत है।

भगवद गीता - श्लोक 6.37 View

अर्जुन ने कहा, "आलसी व्यक्ति जो ईश्वर में ने श्रद्धा के साथ ईश्वर की प्रार्थना के लिए प्रयास करता रहता है। (किन्तु) चंचल मन के कारण प्रार्थना में परिपूर्ण (सिद्ध) नहीं हो पाता है, हे कृष्ण, वह किस धाम को प्राप्त करेगा?”

भगवद गीता - श्लोक 6.38 View

हे कृष्ण! (जो व्यक्ति किसी) भ्रम में है, और ईश्वर के सत्य मार्ग पर स्थित न रह सका। क्या वह बिखरे हुए बादल के समान भटककर दोनों (लोक में, अर्थात इस संसार और अन्य लोक में) बरबाद नहीं हो जाता ?

भगवद गीता - श्लोक 6.39 View

हे कृष्ण! यह मेरी शंका है, जिसे पूरी तरह दूर करने के लिए आपसे विनंती करता हूँ। नि:संदेह आपके (सिवा) इस शंका को दूर करने वाला दूसरा कोई हो नहीं सकता।

भगवद गीता - श्लोक 6.40 View

ईश्वर ने कहा, हे अर्जुन! न इस संसार में और न अन्य लोक में (सत्य कर्म करने वाले ) व्यक्ति का विनाश होता है। मेरे प्यारे (अर्जुन) लोगों का कल्याण करने वाला व्यक्ति निःसंदेह कभी नरक के स्थान को नहीं पाता।

भगवद गीता - श्लोक 6.41 View

ईश्वर की कम प्रार्थना वाला व्यक्ति, उसने जो कुछ भी पुण्य इस संसार में किए ( उनके कारण) स्थायी स्वर्ग का वही (स्थान) पाता है (जो स्थान व्यक्तियों को मिलता है)। (वह स्वर्ग में) नया जीवन पवित्र और महान पद वाले लोगों के घर में या समूह में पता में

भगवद गीता - श्लोक 6.42 View

या (वह कम प्रार्थना वाला व्यक्ति) तपस्वी और बुद्धिजीवियों के समूह में स्थान पाता है किन्तु ऐसा बहुत कम होता है। अर्थात इस तरह का परलोक में स्वर्ग में पवित्र लोगों में नया जीवन पाना।

भगवद गीता - श्लोक 6.43 View

हे अर्जुन! (कम प्रार्थना करने वाले व्यक्ति को भी स्वर्ग में स्थान इस कारण मिलता है कि) वह उस पहले के सांसारिक जीवन में मन से ईश्वर में श्रद्धा रखता था और वह बार-बार परिपूर्ण या हर तरह से सही होने का प्रयास करता था।

भगवद गीता - श्लोक 6.44 View

(कम प्रार्थना करने वाले व्यक्ति को भी स्वर्ग में स्थान इस कारण मिलता है क्योंकि) पहले के (सांसारिक जीवन में ) स्वयम् वह वेदों के अभ्यास (पढ़ने) की ओर आकर्षित था, और वह प्रयास करता था ईश्वर के प्रार्थना की। और (उसने) ईश्वर के नाम के जाप करने में भी प्रगति की थी।

भगवद गीता - श्लोक 6.45 View

किन्तु (इस प्रकार का स्वर्ग मिलना कम होता है। जो साधारण तौर से होता है वह यह है कि) ईश्वर की कम प्रार्थना करने वाला भक्त जो कड़ी मेहनत के साथ (ईश्वर की प्रार्थना का) प्रयत्न करता था, नरक में कई बार (दंड के कारण) मृत्यु पाकर नया जीवन पाने के बाद सभी पापों से पूरी तरह मुक्त हो जाता है। उसके बाद) जीवन का सबसे श्रेष्ठ लक्ष्य (स्वर्ग) प्राप्त करता है।

भगवद गीता - श्लोक 6.46 View

ईश्वर की प्रार्थना करने वाला भक्त (योगी) तपस्वी से श्रेष्ठ है, और वह ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ समझा जाता है। और ईश्वर की प्रार्थना करने वाला भक्त धार्मिक परंपरा करने वालों से भी श्रेष्ठ (समझा जाता है)। इस कारण हे अर्जुन, योगी बनो।

भगवद गीता - श्लोक 6.47 View

ईश्वर की प्रार्थना करने वाले सम्पूर्ण भक्तों में भी जो सच्ची श्रद्धा साथ मुझमें तल्लीन रहते हुए मन की गहराई से मेरी प्रार्थना में व्यस्त रहता है। वह मेरे मत के अनुसार सर्वश्रेष्ठ योगी है।